लोकतंत्र, जनता के द्वारा, जनता के लिए और जनता का शासन कहा जाता है। यह हमारा देश है जहां हमने सार्वजनिक मताधिकार लागू करके सभी नागरिकों के लिए एक बार में ही राजनीतिक समानता ला दी। हालांकि आर्थिक और सामाजिक समानता के लिए संघर्ष जारी रहा है। राजनीतिक समानता एक बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू है क्योंकि कितने ही देशो में यह अधिकार सभी नागरिको को एक साथ नहीं मिला था। कई तथाकथित विकसित देशो में महिलाओं और वंचित समूहों को मताधिकार के लिए अपने आज़ाद और लोकतान्त्रिक देश में भी कई वर्षो तक संघर्ष करने पड़े और अनेकों बलिदान देने पड़े। हमारे देश में स्वाधीनता आंदोलन के उपजे मूल्यों ने यह तय कर दिया था की आज़ाद हिन्दोस्तान सबका होगा और इसके निर्माण में सबकी भागीदारी होगी। हालांकि हमारे यहां भी एक बड़ा तबका था जो नहीं चाहता था कि सार्वजनिक मताधिकार लागू हो और चुनने और चुने जाने का अधिकार सबको मिले। वह लोग कौन थे, आसानी से समझा जा सकता है, जो उस समय भी श्रेष्टता के आधार पर गैरबराबरी और शोषण को कायम करने वाले मनु के विधान को सबसे ऊपर मानते थे और जो आज भी संविधान के सामने माथा तो टेकते है लेकिन उनके दिल और दिमाग में मनु है जो उनकी जुबान और कार्यशैली में साफ झलकता है।
खैर इस विचार को देश ने नकार दिया और हम लोकतान्त्रिक देश के नागरिक है और इसमें जनता केवल चुनती नहीं है बल्कि हर नागरिक को चुने जाने का अधिकार भी दिया गया है। चुने जाने का अधिकार होना बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन चुने जाने के लिए सामर्थ्य होना भी बहुत जरुरी है। अधिकार तो सबको है चुने जाने का लेकिन क्या देश की वर्तमान राजनितिक वातावरण में सभी उम्मीदवारों को चुने जाने के समान अवसर मिलते है। क्या सभी चुनाव लड़ भी सकते है। हमारे देश में आम लोगों के लिए चुनाव लड़ना और निर्वाचित होना दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा है। जब चुनाव लड़ ही नहीं पाएंगे और आम इंसान की जीत संभव ही नहीं तो किसका लोकतंत्र।
पिछले कुछ दशकों में चुनावी खर्चो में बेहताशा बढ़ौतरी हुई है। चुनाव आयोग भी ऐसे ही नियम कायदे बनाता है जो अमीरो के पक्ष में ही है। मसलन गांव, खेड़ो और मोहल्लों में नुक्कड़ सभा में कोई ज्यादा खर्च नहीं होता है। ज़मीन से जुडी पार्टियों और उनके नेताओं के लिए यह सबसे बड़ा प्रचार का साधन था जिसमे जनता के छोटे छोटे समूहों के सामने वह अपने बात रखते थे, उनसे चर्चा करते थे लेकिन अब हर छोटी सभा के लिए आयोग से अनुमति लेनी होती है। रसूकदार पार्टिया और उनके उम्मीदवार तो बड़ी बड़ी जनसभाएं करते है जिनका खर्च लाखो में आता है और एक माहौल बन जाता है। किसी से छुपा नहीं है कि इन सभाओं में भीड़ किराये की भी होती है। दीवार लेखन तो जनता की आवाज ही मानी जाती थी लेकिन यह लगभग बंद ही है। पोस्टर लगाने के लिए तमाम तरह की बंदिशें है लेकिन बड़े बड़े हॉर्डिंग और फ्लेक्स के लिए कोई बंदिश नहीं है। आकार के हिसाब से पैसे दीजिये और जितने मर्जी होर्डिंग लगाइये।
चुनाव आयोग ने भी आधिकारिक तौर पर लोकसभा चुनाव लड़ने वाले अभ्यर्थी के लिए चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा 95 लाख रुपए निर्धारिक की है। कितने ही भारतियों के पास लाखो रुपये है, जो चुनाव में सरमायेदारों की राजनितिक पार्टियों के धनी उम्मीदवारों के धन और बल का सामना कर पाएं। और यह तो है आधिकारिक सीमा। हम सब जानते है प्रत्येक चुनाव में करोडो रुपये खर्च किये जाते है। चुनाव प्रचार में काले धन का भी खुल कर प्रयोग होता है। यह एक नंगा सच है जो चुनाव आयोग और चुनाव से सम्बंधित अन्य संस्थाओं को नहीं दीखता या फिर वह देखना ही नहीं चाहती। जनता तो सब जानती है। वो बात अलग है कि सब जानने के बावजूद भी धनबल से पैदा किये गए वातावरण से प्रभावित होकर उन्ही उम्मीदवारों को चुनती है।
भाजपा सरकार ने चुनावी बांड की व्यवस्था करके संसद लगभग अमीरों और उनकी पार्टियों के लिए आरक्षित ही कर लिया था। लेकिन सर्वोच्च न्यालय ने इसे असंवैधानिक करार दिया और ख़रीदे गए सभी बांड का हिसाब जनता के सामने रखने का फैसला दिया। कोशिश तो पूरी की गई कि भ्रष्टाचार का यह दलदल जनता से छुपा रहे जिसका दीमक लोकतंत्र को भीतर से खा जाता लेकिन माननीय अदालत ने कॉर्पोरेट और भजपा के नापाक गठजोड़ के मंसूबो पर पानी फेर दिया। गौरतलब है कि यह मज़दूर, किसानो, खेत मज़दूरों और आम जनता संघर्षो का प्रतिनिधित्व करने वाली वामपंथी पार्टिया विशेषतौर पर CPIM थी जो इस मुद्दे पर अन्य लोगो के साथ अदालत में न केवल याचिकर्ता बनी बल्कि लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए चुनावी बांड के जरिये एक रूपया भी चंदे में नहीं लिया।
चुनाव प्रक्रिया की सीमाओं और भारत के चुनाव आयोग द्वारा आचार संहिता के अनुसार चुनाव कराने में विफलता के बावजूद, आम लोग अभी भी मानते हैं कि वे अपने बीच से अपने प्रतिनिधियों का चुनाव कर रहे हैं। उन्हें आशा होती है कि चुनाव के बाद उनमे से चुने हुए प्रतनिधि उनके दर्द और समस्या को समझेंगे और उनके हित में काम करेंगे लेकिन प्रत्येक चुनाव के बाद आम जन बौना होता नज़र आता है। इस बार के आम चुनाव में निर्वाचित सांसदों की घोषित संपत्ति पर नज़र डालने से यही पता चलता है कि यह जनता का शासन नहीं है।
चुनावी अधिकार संगठन, एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के एक विश्लेषण के अनुसार, 2024 लोकसभा चुनावों में जीतने वाले 93 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति हैं, जो 2019 में 88 प्रतिशत थे। इसका मतलब है कि कुल 543 विजयी उम्मीदवारों में से 504 करोड़पति हैं। अगर पार्टीवार इसका आंकलन करे तो भाजपा के 240 विजयी उम्मीदवारों में से 227 (95 प्रतिशत) और कांग्रेस के 99 में से 92 (93 प्रतिशत) उम्मीदवारों ने 1 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति घोषित की है। इसी तरह डीएमके के 22 में से 21 (95 प्रतिशत), टीएमसी के 29 में से 27 (93 प्रतिशत), समाजवादी पार्टी के 37 में से 34 (92 प्रतिशत) उम्मीदवारों ने 1 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति घोषित की है। शीर्ष तीन सबसे धनी सांसद आंध्र प्रदेश के गुंटूर निर्वाचन क्षेत्र से टीडीपी के चंद्र शेखर पेम्मासानी हैं जिनकी संपत्ति 5,705 करोड़ रुपये है, तेलंगाना के चेवेल्ला से बीजेपी के कोंडा विश्वेश्वर रेड्डी जिनकी कुल संपत्ति 4,568 करोड़ रुपये है, और हरियाणा के कुरुक्षेत्र से बीजेपी के नवीन जिंदल जिनकी संपत्ति 1,241 करोड़ रुपये है।
विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि सरमायेदारों की सभी राजनीतिक पार्टियां करोड़पतियों से ही भरी पड़ी है। गजब तो यह है कि आम आदमी पार्टी जो अपने को अलग और आम लोगो की राजनीती की वाहक बताती है के सभी (3) विजयी उम्मीदवार करोड़पति हैं, इसके साथ जेडीयू (12) और टीडीपी (16) के भी सभी विजयी सांसद करोड़पति हैं। विडम्बना यह है कि केवल लगभग 1% विजयी सांसदों के पास 20 लाख रुपये से कम की संपत्ति है। 99% सांसदों के पास 20 लाख रुपये से ज्यादा की संपत्ति है तो समझा कि यह सांसद आम जन में से चुन कर नहीं आये हैं।
गालिबन यही हालात राजसभा के सांसदों की भी है। राजसभा में तो राजनैतिक पार्टियों की प्राथमिकता ज्यादा साफ़ नज़र आती है क्योंकि यहाँ उम्मीदवारों का चुनाव करते हुए जनता में जितने का दबाव नहीं होता।मोटे तौर पर विधान सभाओं में पार्टियों की ताकत के अनुसार सीटें मिलती है। मार्च 2024 में राजसभा सांसदों की औसत संपत्ति 87.12 करोड़ रुपये है। इसमें भी भाजपा जो कि अब खुले तौर पर अमीरो की पार्टी है और कॉर्पोरेट के लिए नीतियां बनाती है, के सांसदों (कुल 80 सांसद) की औसत सम्पति 37. 34 करोड़ है। पिछले कुछ वर्षो में पूंजीपतियों ने अपनी क्षेत्रीय पार्टिया बनाई है। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के चुनावो में जितने बड़े स्तर पर धन का प्रयोग होता है उसका एक प्रतिविम्ब वहां से आने वाले राज्य सभा सांसदों की सम्पति से चलता है। YSRCP के सांसदों की औसत सम्पति 357.68 करोड़ रुपये और TRS के सांसदों की औसत सम्पति 1383.74 करोड़ रुपये है। आम आदमी पार्टी के सांसदों की औसत सम्पति भी 114. 81 करोड़ रुपये है। राज्य सभा के कुल सांसदों में से 14% तो खरबपति है जिनकी सम्पति 100 करोड़ रुपये से ज्यादा है।
एक जायज चिंता जो इस चुनाव के बाद उभर कर आई है वह है अल्पसंख्यकों विशेषतौर पर मुस्लिम समुदाय की संसद में घटती हिस्सेदारी। इस लिहाज से अठारहवीं लोकसभा में छह दशकों में मुस्लिम सांसदों की हिस्सेदारी सबसे कम है। वर्तमान में इसके 5% से भी कम सदस्य मुस्लिम हैं । कुल मिलाकर, वर्तमान में लोकसभा में 24 मुस्लिम सांसद (4.4%) हैं। 2024 में तथाकथित सबसे अधिक सदस्यों वाली पार्टी, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में फिलहाल मुस्लिम समुदाय से कोई प्रतिनिधि नहीं है। यह कोई संयोग नहीं है कि भाजपा की देश में बढ़ती ताकत और संसद में इसके सांसदों की बढ़ती संख्या के साथ ही 1990 के दशक से ही लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की हिस्सेदारी में गिरावट हुई। दूसरा चिंता का विषय मोदी सरकार द्वारा संसद के लिए महिला आरक्षण का पूरा श्रेय और चुनाव में इसका लाभ भुनाने के बावजूद वर्तमान लोकसभा में केवल 13.6% महिलाएं है। अठारहवीं लोकसभा केवल 74 महिला सांसद चुन कर आई हैं। इसके बारे में चर्चा हो रही है। असल में सामाजिक न्याय के लिए चिंता करने वालो से लेकर उत्तराधुनिकतावाद के पुरोधा इस पर गहरी चिंता जताते है लेकिन जब बात आती है करोड़पति जमात द्वारा संसद को हथियाने की तो कोई सवाल नहीं पूछता।
यह बड़ा ही मजेदार विकासचक्र है जहां करोडो आम नागरिकों का प्रतिनिधित्व करोड़पति करेंगे। जिनके पास संसाधन है, जिनमे से एक छोटा हिस्सा पूरे देश की सम्पति पर कब्ज़ा करके बैठा है, जो देश के प्राकृतिक और मानव (श्रम) संसाधनों का शोषण कर अथाह मुनाफा कमा रहें है, वही जीत कर संसद में पहुँच रहे है। देश के मज़दूर, किसान, खेत मज़दूर और दूसरी मेहनतकश जनता, जिनके श्रम का शोषण करके ही इन करोड़पतियों ने मुनाफे अर्जित किये है, वह अपनी चुनी संसद से क्या आश लगाए। जब शोषक ही अपने धन बल से नीतियां बना रहा है तो फिर श्रम कानूनों को खतम कर श्रम सहिंता का झुनझुना ही मज़दूरों को मिलेगा और संसद का काम है इसे जायज ठहरना। किसानो के लिए होंगे कॉर्पोरेट परस्त कृषि कानून जो उनसे उनकी ज़मीन और सरकारी मंडिया छीनने के लिए बनेंगे, सार्वजानिक वितरण प्रणाली गैजरुरी हो जाएगी क्योंकि यह भूख से कमाए जा सकने वाले मुनाफे पर लगाम लगाती है। खेत मज़दूर तो कभी गिनती में नहीं आएंगे। देश का विकास देश की सम्पति कॉर्पोरेट घरानो को बेचने में ही समझा जायेगा। संसद देश की जनता का रक्षक नहीं बल्कि मुट्ठीभर अमीर वर्ग के हित साधने का साधन बन गया है।
इसका यह मतलब नहीं है कि हमारा जनता की ताकत में विश्वाश नहीं है। लोकतंत्र की इन तमाम कमजोरियों के बावजूद जनता में अथाह ताकत है। उसी ताकत का नतीजा है कि इन करोड़पति सांसदों से भरी संसद को जनता के पक्ष में निर्णय लेने पड़ते है। जब संसद सही निर्णय नहीं लेता तो जनता सड़क के संघर्ष के जरिये उसे बदलती भी है और अपने अनुभवों के आधार पर चुनावों में जनता विरोधी नेताओं को सबक भी सिखाती है। यही लोकतंत्र की ताकत है। लेकिन करोडो रुपये खर्च करके चुनाव प्रबंधन एजेंसियां और उनके आका चुनाव के पूरे नतीजों को प्रभावित करने का दम भरते है। बड़े ही कमीनेपन के साथ जातीय और धार्मिक पहचान का राजनीतिक प्रयोग करके जनता के मतों को प्रभावित करते है। देखा जाये तो चुनाव प्रबंधन एजेंसियां लोकतंत्र की मूल अवधारणा के खिलाफ है। उन्हें कोई हक़ नहीं है कि पैसे, पहचान की राजनीती और सोशल मीडिया (तकनीक और अब कृत्रिम बुद्धिमत्ता, artificial intelligence) के जरिये जनता के चुनाव को प्रभावित करने का। वह तस्वीर बनाते है जहाँ जनता अपने अनुभवों, दुःख- तकलीफो और जीवन के जुड़े मुद्दों के आधार पर उम्मीदवार चुनती है लेकिन असल में यह विकल्प भी उसी वर्ग में से होता है। चुनने के बाद केवल चेहरे बदलते है न कि उनका वर्गीय चरित्र और नीतिया भी फिर अपने वर्ग के लिए ही बनती है।
लोकतंत्र को पैसे की ताकत से बचाने का रास्ता क्या है? इसके लिए हमारे देश में तत्काल चुनाव सुधार करने होंगे। राजनितिक पार्टियों के लिए कॉर्पोरेट चंदे पर रोक लगनी चाहिए और चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग होनी चाहिए। लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए कॉरपोरेट्स को फंड देना चाहिए और इसे राज्य चुनावी फंड में जमा किया जाना चाहिए । इसका उपयोग राज्य के वित्त पोषण के लिए उपयोग किया जाना चाहिए। यह एक जरिया यह सब के लिए बराबर का मैदान तैयार करने के लिए।
इस कुचक्र से निकलने और लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए जनता की राजनैतिक चेतना का विकास बहुत जरुरी है। शिक्षा और प्रचार के साथ जनता के अपने संगठनों में संघर्षो से अर्जित अनुभव बहुत जरुरी है। अपने वर्ग के साथ अपने मुद्दों पर संघर्ष करते हुए जो वर्गीय चेतना पैदा होती है वही सामना कर पाती है चुनावों में धनबल द्वारा सृजित किये गए सम्मोहित करने वाले वातावरण का जिसमे लोग अपने सही प्रतिनिधि का चयन करते है।